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कविता

हाथों के दिन आएँगे

त्रिलोचन


हाथों के दिन आएँगे। कब आएँगे,
यह तो कोई नहीं बताता। करने वाले
जहाँ कहीं भी देखा अब तक डरने वाले
मिलते हैं। सुख की रोटी कब खाएँगे,
सुख से कब सोएँगे, उस को कब पाएँगे,
जिसको पाने की इच्छा है, हरने वाले,
हर हर कर अपना-अपना घर भरने वाले,
कहाँ नहीं हैं। हाथ कहाँ से क्या लाएँगे।

हाथ कहाँ हैं, वंचक हाथों के चक्के में
बंधक हैं, बँधुए कहलाते हैं। धरती है
निर्मम,पेट पले कैसे। इस उस मुखड़े
की सुननी पड़ जाती है, धौंसौं के धक्के में
कौन जिए। जिन साँसों में आया करती है
भाषा,किस को चिंता है उसके दुखड़े की।

 


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